अपवित्रीकरण के बाद एक और अपवित्रीकरण – जब अस्पताल का स्टाफ महिला के गुप्तांग में अपनी दो उंगलियों को जबरन धकेलता है
टू-फिंगर टेस्ट यानीजबरदस्ती सेक्स के बाद एक और जबरजस्ती चुदाई
जब अस्पताल का स्टाफ महिला के गुप्तांग में अपनी दो उंगलियों को जबरन धकेलता है तो उस अपमान और दर्द को वहअपवित्रीकरण पीड़ित औरत ही समझ सकती है, उसके आस-पास खड़ा कोई पुरुष नहीं.
मैं हकीकत में कभी समझ नहीं पाती कि क्यों भारतीय लोग एक महिला के कौमार्य को लेकर पागल रहते हैं. अगर एक आदमी के लिए सेक्स एक जीत के रूप में एक अछूता विचार है. तो फिर एक महिला भी ऐसा ही क्यों महसूस नहीं कर सकती? क्यों दो तरह की बातें हमेशा उलझन में डालती हैं- कौमार्य और पवित्रता?
दिल्ली सरकार की नई सलाह वाली खबर के मुताबिकजबरदस्ती सेक्स के मामलों में पीड़िता की सहमति से अस्पतालों में पीवी टेस्ट, जिसे “दो उंगली परीक्षण” भी कहा जाता है, किया जा सकता है. यह सलाह विशेषज्ञों के एक पैनल द्वारा तैयार किए गए 14 पृष्ठों के दस्तावेज पर आधारित है. दावा किया गया है कि इस परीक्षण पर पूरी तरह प्रतिबंध लग जाने की स्थिति में डॉक्टर अपना काम ठीक तरह से नहीं कर पाएंगे.
हालांकि एक्टिविस्ट और महिला अधिकार संगठनों के आवाज उठाने के कुछ ही घंटों बाद ही उन निर्देशों को आम आदमी पार्टी की सरकार ने वापस ले लिया. सरकार ने इस फरमान को जारी करने वाले अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई का वादा भी कर दिया.
दिल्ली के स्वास्थ्य मंत्री सत्येन्द्र जैन ने एक पत्रकार सम्मेलन में सफाई देते हुए बताया कि सर्कुलर में “गलत व्याख्या” कर दी गई थी और यह परीक्षण यौन उत्पीड़न के मामलों में इस्तेमाल नहीं किया जाएगा. हालांकि, सावधानी बरतते हुए जैन ने कहा कि सर्कुलर वापस नहीं होगा, लेकिन मंत्रालय उस पर एक स्पष्टीकरण जारी करेगा.
मेरे पास सत्येन्द्र जैन के लिए एक सवाल है.
क्या एक आदमी कभी इस बात को महसूस कर सकता है कि गुप्तांग में जबरदस्ती उंगली डालने पर कैसा लगता है? सेक्सिस्ट रिपोर्ट तैयार करने वाले भी इस बात से सहमत होंगे कि जब अस्पताल का स्टाफ महिला के गुप्तांग में अपनी दो उंगलियों को जबरन धकेलता है तोअपवित्रीकरण पीड़ित औरत का शोषण होता है. क्या आप महसूस कर सकते हैं कि कैसे एक औरत का अपमान होता है? जब उसे अजनबियों के एक झुंड के सामने नग्न होने को कहा जाता है.
मुझे व्यक्तिगत हो जाने दें.
कुछ महीने पहले, मैंने सिलीगुड़ी में एक 20 वर्षीय युवती रिया से संपर्क किया था. जिसके साथ सामूहिकअपवित्रीकरण हुआ था और बाद में एक एमएमएस कांड भी झेलना पड़ा. थाने में दर्ज एफआईआर में उसने अपने पूर्व प्रेमी पर उसका फेक एमएमएस बनाने, एमएमएस से उसे ब्लैकमेल करने, यौन उत्पीड़न करने और लोगों के बीच उसकी प्रतिष्ठा को अपमानित और नुकसान पहुंचाने का आरोप लगाया था. जिसने उसे स्वाभाविक रूप से मेडिकल टेस्ट के लिए पहुंचा दिया.
यह वही अनुभव है जो उसने अपने बारे में बताया था:
“नार्थ बंगाल मेडिकल कॉलेज में मेरी जांच करने वाले डॉक्टर ने मेरा मजाक बनाया, कहा ‘पहले तुमने सेक्स का आनंद लिया, और अब तुम शिकायत कर रही हो क्योंकि तुम्हारा एमएमएस लीक हो गया या वो तुम्हे अब पर्याप्त संतुष्ट नही कर पा रहे हैं.’ आखिरकार, मासिक धर्म में होने की वजह से वह मेरा परीक्षण नहीं कर सका. मैंने एक महिला डॉक्टर के लिए अपील की थी.”
सरकार की आलोचना होने से पहले डॉक्टरों की तीन सदस्यीय समिति 31 मई को जारी किए गए इस निर्देश में क्या समझाने की कोशिश कर रही थी? क्या महिलाएं सेक्स करने की आदी हैं?
क्या कौमार्य खो देना उसे एक महिला से कमतर बना देता है? क्या यह जघन्य अपराध को अंजाम देने वालों को बेहतर महसूस कराने के लिए है, जिन्होंने उसे शिकार बनाया? क्या उन्होंने इसकी कीमत चुकाई?
क्या हम अरुणा शानबाग का मामला भूल गए हैं? वह 25 वर्षीय नर्स, जिसे 27 नवंबर 1973 की रात सोहनलाल भारथा वाल्मीकि नाम के एक वार्ड ब्वॉय ने अस्पताल के तहखाने में यूनिफॉर्म बदलते वक्त अपना शिकार बनाया था. वाल्मीकि ने पहले उसके गले को एक कुत्ते के पट्टे से बांध कर उसके साथ बलात्कार किया. और फिर लूट लिया. गला कसने से उसके दिमाग को होने वाली ऑक्सीजन सप्लाई बंद हो गई थी. नतीजा यह हुआ कि वह दृष्टिहीन हो गई. और कोमा में चली गई थी. शानबाग 42 साल तक बेहोशी में जीवित रही, जबकि वाल्मिकी को हत्या का प्रयास और डकैती के लिए केवल छह साल की सजा हुई थी. अरुणा की कहानी लिखने वाली पत्रकार और लेखक पिंकी वीरानी ने लिखा था कि “सबसे बुरा हिस्सा: उसेजबरदस्ती सेक्स के लिए सजा नहीं हुई थी क्योंकि उसने योनी के माध्यम से नहीं, बल्कि गुदा के जरिएअपवित्रीकरण थी.” विडंबना यह रही कि डॉक्टरों ने तब अरुणा का यही पीवी टेस्ट किया था और रिपोर्ट में बताया कि उसका कौमार्य बरकरार है. अब इसी टेस्ट को मान्य करने के लिए मांग की जा रही है ताकि पता चल सके कि महिला का कौमार्य सुरक्षित है या नहीं.
अरुणा शानबाग को किसने विफल किया? हम, समाज ने या हम, सिस्टम ने?
महिला कोई सेकंड क्लास सेक्सुअल सिटिजन नहीं है. एक महिला को पूरा हक है कि वह पिल के लिए ना कह दे और इस बात पर जोर दे कि उसका साथी कंडोम पहने.
अगर अपने पति के साथ सेक्स के दौरान मुझे खून नहीं बहता, तो क्या बड़ी बात है? किताबों में, फिल्मों में, टीवी पर यौन उत्तेजना के पर्याय के रूप में दर्द को क्यों दिखाया जाता है? सुहाग रात के बारे में एक पंरपरा बना दी है, दुल्हन को हमेशा एक ऐसी नवविवाहिता के रूप में दिखाया जाता है जो अपना निचला होंठ काटते हुए, शर्माते हुए आती है. उसे कुछ शादी-शुदा महिला रिश्तेदारों का झुंड फुसफुसाते हुए बेडरूम के दरवाजे से उसे अंदर भेजता है और बताता है कि उसे किस तरह से पति के लिए गर्म दूध का गिलास पकड़ना चाहिए. पलंगतोड़ जोक्स और नथ उतराने जैसी रवायतें महिलाओं को बिस्तर में एक बेजान, मूढ़ और सेक्स को सहने वाली के रूप में स्थापित कर दिया गया है. जैसे रसोई घर में. वर्षों बाद भी.
मेरा मतलब है कि क्या एक आदमी कभी दर्दनाक ट्रांस-वेजीनल अल्ट्रासाउंड से गुजरता है और एक गंभीर दिखने वाले स्त्री रोग विशेषज्ञ के शर्मनाक सवालों का सामना करता है, ज्यादातर मामलों में जो अपने ही सेक्स के बारे में दूसरों की सलाह का सामना करता है? आप जानते हैं कि एक योनि परीक्षण या पैप स्मीयर कितना दुखदायी होता है?
महिलाओं को जन्म देने में कितनी तकलीफ होती है?
कैसे पीएमएस सिंड्रोम एक वास्तविकता है. हमारे मासिक पुरुषों के लिए केवल मजाक की बात है. क्या किसी आदमी ने कभी सेनिटरी नेपकिन पहना है, बहुत खून बहा हो, और उसके दर्द को सहते हुए भी कोई अहम बैठक में हिस्सा लिया हो? क्या आपको किसी ने कहा कि उन दिनों में रसोई या मंदिर न जाया करो? या उन मूर्खतापूर्ण विज्ञापनों को देखने को कहा हो, जो दावा करते हैं कि उनका प्रोडक्ट मासिक धर्म के दौरान होने वाली परेशानियों को विपरीत सेक्स के सामने कम कर देगा, क्या यह कोई सौंदर्य प्रतियोगिता है?
लेकिन, कौन सुन रहा है? कौन परवाह करता है?
अब आम आदमी पार्टी आसानी से बस पीछे हट रही है, सिर्फ राजनीतिक आलोचना से बचने के लिए?
एक और सी-शब्द…
कंट्रोवर्सी.
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