नजदीक से किसी वेश्या को देखने की उत्सुकता – मैं रंडी हूं

नजदीक से किसी वेश्या को देखने की उत्सुकता – मैं रंडी हूं

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भाग 37तुम पहले इंसान हो जिसने मुझे हाथ भी नहीं लगाया, मैं रंडी हूं, पर हराम का नहीं खाती : वह लड़का दो-दो सीढ़ी एक साथ चढ़ रहा था। हम ठंड से ठिठुरे जा रहे थे। उस लड़के के पीछे-पीछे ऊपर सीढिय़ां चढ़ते हुए हमारी नजर नीचे की ओर भी थी और ऊपर की ओर भी। नीचे इसलिए कि किसी जान-पहचान वाले की नजर हम पर ना पड़ जाये। ऊपर इसलिए कि हमें पहली बार नजदीक से किसी वेश्या को देखने की उत्सुकता थी। रोमांच की हद तक !

सीढिय़ां चढ़कर हम ऊपर पहुंचे। वहां एक लाइन में कमरे बने हुए थे। कुछ कमरों के सामने लड़कियां खड़ी थीं। वो लड़का कई कमरों के सामने से गुजर गया। हम सकुचाये से उसके पीछे-पीछे चलते रहे। किसी-किसी लड़की से सौदेबाजी भी की जा रही थी। गाली-गलौच के जुमले भी तैर रहे थे। अकेली खड़ी लड़कियां हमारी ओर इशारे करतीं, हमारे आगे जा रहे लड़के के गाल पर हल्का सा चपत लगातीं। वह उनका हाथ झटक देता। छठे या सातवें कमरे के सामने जाकर लड़का रुका। दरवाजा बंद था। उसने दरवाजे पर दस्तक दी।

अंदर से जनाना आवाज आयी, ‘पांच मिन्ट मै आना। अभी मैं बैठी हूं।’

लड़के ने दूसरी बीड़ी सुलगा ली थी। बोला, ‘साब, अंदर गराहक है। हियां रुकोगे या कुछ चा-चू हो जा?’

ये 1980 के दशक का मेरठ था। तब पीने के नाम पर, और वो भी दिसम्बर की कड़कड़ाती रात में, चाय की ही बात हो सकती थी। जो पीने का शौक रखते थे, वो इंतजाम करके चलते थे। या फिर देसी शराब की तलाश करते थे। हमने उसे चाय पीने का इशारा किया। वो उतनी ही फुर्ती से नीचे उतरा। सड़क पार करके एक ठेले की ओर बढ़ गया। वहां हमने चाय पी। कुल्हड़ में। लड़के ने जरा शरारत से पूछा, ‘कुछ खाने-वाने कू बी चइयै या उप्पर जाकै ई खाओगे?’

उसका हमने कोई जवाब नहीं दिया। कोई दसेक मिनट बाद हम फिर ऊपर के कमरे की ओर बढ़े। दरवाजा खुला था। लड़के ने आवाज लगायी, ‘आ जावैं?’

‘किसै लाया है तू आज? कल वाला यईं बैठ कै चढ़ा रा था।’

‘नई। ये पीनै-वीनै वाले ना हैं। सीद्दे से लगै हैं।’

लड़के के इशारे पर हम अंदर चले गये। वो कोई 18-19 साल की लड़की थी। एक तख्त बिछा था। उसी पर बैठी थी। छोटे कद, गोल चेहरे और सांवली रंगत की। उसने सलवार-कुर्ता पहन रखा था और वो बीड़ी पी रही थी। हमें देखकर लड़के पर जरा भड़की

‘ये क्या चक्कर है? एक साथ दो कू क्यू लाया तू?’

‘मैनै तो कहया बी था अक एक्केक करकै जाओ। पर ये ना मान्ने। इसमै मेरा का कसूर?’

‘ठीक है। तू फूट अब यां सै। अर तैनै अपने पैसे ले लिए?’

‘हां। ले लिए।’

वह लड़का हमारी तरफ आंख मारकर चला गया। अब लड़की ने हमें पहली बार ध्यान से देखा। उसे थोड़ा अचरज हुआ। दो को देखने से ज्यादा शायद हमें एक-दूसरे से इशारों में बात करते देखकर। आखिर वह पूछ ही बैठी, ‘क्या बात है? इस तरह बिना बोल्ले क्यू बात कर रे हो? गूंग्गे-बहरे हो का?’

मैंने उससे कहा, ‘दोनों नहीं, पर ये (नौनिहाल की तरफ देखकर) बहरे हैं। ठीक से बोल भी नहीं सकते।’

उसकी आंखें जरा चौड़ी हुईं। बोली, सुन-बोल सकते नहीं और चो…. चले आये।’

मैं शरमाया।

‘नहीं-नहीं उस काम के लिए नहीं आये हैं।’

‘तो फिर क्या मुजरा सुनने आये हो?’

मुझे लगा कि अब संकोच छोड़कर सीधे बात कह देनी चाहिए।

‘बहनजी बात…’

‘अबे ओ भैनचो… भैन-वैन भूल जा। सीद्दी तरा सै बोल दै क्या बात है।’

‘आप मुझे बोलने तो दो…’

‘अर या आप-वाप बी भूल जा। यां ना कोई बोलता ऐसी बोल्ली।’

‘ठीक है। बात ये है कि ये मेरे गुरु हैं। इन्हें एक कहानी लिखनी है..’

‘तो मै क्या दाद्दी-नान्नी लगू हैं जो कथा-कहानी कऊंगी?’

‘नहीं ये बात नहीं है। इन्हें आपके बारे में कुछ जानकारी चाहिए…’

उसने फिर मेरी बात काटने की कोशिश की। पर मैंने हाथ जोड़कर कहा, ‘आप पहले पूरी बात सुन लो। ये बहुत अच्छे आदमी हैं। लेखक हैं। कहानियां लिखते हैं। एक कहानी एक वेश्या पर लिख रहे हैं। इसीलिए आपके पास आये हैं। आपकी सच्ची कहानी जानने के लिए। आपका नाम कहीं नहीं आयेगा। घटनाएं सच्ची लिखेंगे। नाम झूठा होगा। कोई नहीं जान पायेगा कि यह आपकी कहानी है। बस आप इनकी मदद कर दो।’

वह जरा गंभीर हुई। उसके माथे पर शिकन आयी। बीड़ी का धुआं छोड़ते हुए बोली, ‘यू तै अजीब बात है। लोग यां चू… लेने आवैं हैं, अर तुम मदद लेने आए हो। पर मै अपना धंदा खराब ना करू। नोट पूरे गिनूंगी। वो बी तुम दोनो के। पूरे तीस रुपय्ये गिनवा दो पैले।’

मैंने जेब से निकालकर उसे 30 रुपये दे दिये। नौनिहाल ने मेरी ओर इशारा किया। मैंने अपने बैग में से डायरी निकाली। उसमें नौनिहाल ने मुझे वे सवाल लिखवा दिये थे, जो उन्हें किसी वेश्या से पूछने थे। मैंने सवाल करने शुरू किये। वह जवाब देती गयी । पहले थोड़ी झिझक के साथ, फिर खुलकर। उसकी कहानी भी कमोबेश वैसी ही थी, जैसी कि अमूमन कोठों पर पहुंचने वाली ज्यादातर लड़कियों की होती है। उसे यहां दोहराने की जरूरत नहीं। नौनिहाल उसे एकटक देखे जा रहे थे। उसके होठों को पढ़ते हुए। मैं सवाल पूछता जा रहा था। वो जवाब देती जा रही थी। मैं लिखता जा रहा था। उसने कई बार पूछा कि उसका नाम तो नहीं आयेगा कहीं। अब तक मेरा हौसला भी कुछ खुल गया था। मैंने मुस्कराकर कहा, ‘आपको क्या लगता है, आपका असली नाम हमने बसंती मान लिया? असली नाम तो कुछ और ही होगा।’

इस पर वह पहली बार खुलकर हंसी। उसने एक और बीड़ी जलायी। इशारे से हमसे पूछा, ‘चाहिए क्या?’ हमने एक साथ, उसी तरह इशारे से मना किया। चूंकि नौनिहाल उसके होठों को पढ़ रहे थे, इसलिए उन्हें उसकी कही हर बात का पता चल रहा था। इसीलिए वे भी उससे सवाल पूछते जा रहे थे। ये और बात है कि उनकी आवाज को वह समझ नहीं पा रही थी और मुझे दोहराना पड़ रहा था।

इस सबमें कोई एक घंटा हो गया। सर्दी बढ़ती जा रही थी। ‘बसंती’ ने एक पुराना सा शॉल ओढ़ लिया था। हम सिहर रहे थे। उस कमरे में कुछ भी सामान नहीं था। बस, एक बक्से में शायद उसके कपड़े-वपड़े होंगे। हमारी बात पूरी हो गयी। हमने चलने का उपक्रम किया। नौनिहाल ने उससे पूछा, ‘हमने तुम्हारा शायद ज्यादा ही समय ले लिया। और पैसे चाहिए, तो बोलो।’

मुझे लगा, वह और पैसे मांगेगी। पर अचानक वह रोने लगी। पहले धीरे-धीरे, फिर बुक्का फाड़कर। हम हैरान। अब इसे क्या हुआ। उसने हमें 30 रुपये लौटा दिये। बोली तुम पहले इंसान हो जिसने मुझे हाथ भी नहीं लगाया। मैं रंडी हूं, पर हराम का नहीं खाती।’

हमने बहुत इसरार किया कि हमने उसका समय तो लिया ही है। इसलिए उसका हक है इन पैसों पर।

लेकिन वो नहीं मानी। हम संकोच से गड़ गये। बुझे मन से मैंने वे रुपये अपनी जेब में रख लिये। उसने हमें गुड बाय कहा। बाहर 4 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान था। हमने ठेले पर जाकर एक-एक गिलास चाय और पी। न जाने क्यों, अब मेरे मन से किसी के देखे जाने का डर चला गया था।

हम घर की ओर चले। नौनिहाल मुझे मेरे घर के सामने छोड़कर आगे बढ़ गये।

कुछ महीने बाद सारिका में नौनिहाल की कहानी ‘बसंती रो पड़ी‘ छपी। हमने किसी को यह नहीं बताया कि यह सच्ची कहानी है।

हां, नौनिहाल ने मेरे सामने बरसों बाद एक राज खोला। वे हर साल रक्षा बंधन पर ‘बसंती’ से मिलने जाते थे। उसने कई कोठे बदले। पर नौनिहाल के पास उसका हर नया पता रहता था। शायद भाई बनकर किसी कोठे पर जाने वाले गिने-चुने ही होंगे!